लघु उपन्यास "अस्तित्व की खोज" अध्याय 2

अध्याय 2 धुंध के उस पार 

(अपनी इन पुरानी यादों के बाद अरुण के आंसू थम नहीं रहे थे, उसकी आँखों में बरसों का जमा दर्द और असमर्थता झलक रही थी। वह कुर्सी से उठकर शीशे के सामने खड़ा हो जाता है। उसकी आँखों में कॉलेज की छायाएँ फिर से ताजगी से उभरने लगती हैं। उसे अपने इंटर कॉलेज के वो दिन याद आने लगते हैं, जब बच्चे उसकी शालीनता देखकर उसे 'हिजड़ा' कहकर चिढ़ाया करते थे। उन शब्दों की आवाज आज भी उसके मन में ताज़ा है।")

अरुण (अरुण शीशे के सामने धीरे से फुसफुसाते हुए):

"नहीं... तुम सब झूठे हो मैं हिजड़ा नहीं हूँ..."

(अरुण कुछ क्षण बिना किसी हलचल के शीशे के सामने शांत खड़ा रहता है वहा ध्यान से अपने आप को देखता है। फिर उसके मन में भीतर से एक कर्कश आवाज़ आती है—)

मन की आवाज़:

"तू हिजड़ा ही है...तुझे कोई पसंद नहीं करता तू इस धरती पर बोझ है।"

(अरुण के चेहरे के भाव एकाएक बदल जाते हैं वह अपने भीतर की आवाज से संदेह से भर जाता है। वह हिजड़ा नहीं बल्कि एक पुरुष है। लेकिन दूसरों के किए गए कटाक्ष से आज वह अपने आप को जांच रहा है। वह अपने दुखों से पूरा टूट चुका है अब वह उन आवाजों और वास्तविकता के बीच भेद नहीं कर पाता।)

अरुण (संशय और पीड़ा में):

"नहीं... नहीं! मैं हिजड़ा नहीं हूँ...और मैं धरती का बोझ नहीं हूं। मैं जरूर एक दिन बड़ा काम करूंगा और अपने देश के साथ अपना नाम रोशन करके तुम सबको सबक सिखा दूंगा।"


(वह आवाज अरुण के मन में गूंजती है और वह अचानक दहाड़ कर रो पड़ता है। उसके घुटनों में अब खड़े रहने की जान नहीं बचती और वह फर्श पर गिर पड़ता है। आँसू बहते हैं, सिसकियाँ उसके पूरे शरीर को झकझोर देती हैं। तभी, उसके भीतर कहीं से एक उम्मीद उठती है —वह घसीटते हुए मोबाइल तक पहुँचता है। काँपते हाथों से वह अपने पुराने इंटर कॉलेज के दोस्त विभात का नंबर डायल करता है।)

अरुण (कमज़ोर आवाज़ में):

"विभात... मुझे नहीं पता मेरे साथ क्या हो रहा है कुछ अजीब घटनाएं हो रही हैं यार... मैं ठीक नहीं हूँ..."

(विभात कहता है अपनी बकवास बंद कर मेरे पास तेरी बकवास सुनने का समय नहीं है। उधर कुछ हलचल होती है। विभात अपने फोन को अपने दोस्त के पास दे देता है और उससे कहता है कि इसे गाली दो। फिर एक अनजान आवाज़ आती है, हँसी के साथ कटीली बात कहती है।)

विभात का दोस्त (मजाक उड़ाते हुए):

"अबे ओ, ये वही अरुण है ना? जो हमें बाज़ार में मिला था चल मैं ही बात करता हूं उससे, आज इसे जमकर गाली दूंगा... बहुत फ़ालतू है ये।"

(गाली देकर विभात फोन काट देता है। अरुण की आँखें भर जाती हैं। आज विभात और उसका दोस्त उसे बाज़ार में मिले प्रभात के दोस्त ने अरुण के कपड़े फोन और कॉलेज का खूब मजाक उड़ाया। वह ज़ोर-ज़ोर से हँसता है, और उस हँसी में प्रभात की भी आवाज़ मिलती है। अरुण का दिल में कुछ टूट जाता है।)

(उसने कभी किसी को पलटकर गाली नहीं दी थी। वो अपशब्द सुनकर भी चुप रहता था। दुनिया ने उसकी शालीनता को उसकी कमज़ोरी बना डाला था।)

(थोड़ी देर बाद अरुण हिम्मत जुटाकर अपने एक और पुराने दोस्त कमल को कॉल करता है। लेकिन...)

कमल (ठंडी और सख्त आवाज़ में):

"अरुण, सुनो... इस बार कॉल कर दिया, ठीक है। अगली बार इस नंबर पर कॉल मत करना। मैं तुम से बात नहीं करना चाहता"

(फोन कट जाता है। अरुण अपनी किताबों के सामने खाली कमरे में बैठा है, अरुण बाहर देखता है तो खिड़की के बाहर धुंध फैली है, जैसे आज उसका ही मन धुंधला हो रहा हो। जिन दोस्तों के साथ उसने अपनी ज़िंदगी के सबसे कठिन पल बाँटे थे, वो अब उसकी आवाज़ भी नहीं सुनना चाहते।)

(मोबाइल पर फिर से रिंग बजती है। स्क्रीन पर आशीष का नाम उभर कर आता है।)

अरुण (कांपते स्वर में):

"ह-हैलो?"

आशीष (घबराई हुई आवाज़ में):

"अरुण... मेरे साथ कुछ बुरा हो रहा आज मेरे कमरे में वासव का भूत आया था। मैंने आज आत्मा देखी... वो पुराने दोस्त वासव की आत्मा थी जिसने हाल ही में आत्महत्या की थी। वो मेरे दरवाज़े पर खड़ा था... उसकी आँखें... अरुण, उसकी आँखें मुझे घूर रही थीं..."

(अरुण चौंकता है, लेकिन वह चुप रहता है। आशीष की घबराई हुई हालत देख कर वो अपना दर्द आशीष से नहीं बाँटता। अपनी हालात के वजह से अरुण उसे अच्छी राय भी नहीं दे पाता। उसका मन एक पल के लिए हँसने लगता है—एक थकी हुई, अंदर ही अंदर टूटती हुई हँसी के साथ अरुण फोन काट देता है।)

अरुण (मन में):

"आत्मा... लोगों को भूत कैसे दिख जाते हैं मुझे क्यों नहीं दिखते शायद ये उसका मानसिक भ्रम होगा... या शायद अकेलापन और नशे के वजह से वह भूत देखने लगा है l"

(अरुण अपने पुराने इंटर कॉलेज के दोस्त आशीष का भ्रम तो पहचान पा रहा था लेकिन अपनी भीतर के आवाजों को नहीं समझ पाया कि यह भी तो मेरा भ्रम हो सकता है उन्हें वह सच मान रहा था और बिना किसी तर्क के उन पर भरोसा कर रहा था। शायद इसी छोटे से अंतर की नजर अरुण की खुशियों को लग गई या मानसिक स्वास्थ्य की अधूरी जानकारी ने अरुण को भ्रमित कर दिया होगा।)

(आज दोपहर की धूप कमरे की दीवार पर अतीत की एक धुंधली सी लकीर बना रही थी। जिसमें अरुण खोया जा रहा था। अरुण अकेला बैठा था। खाने की थाली उसके सामने पड़ी — चावल, दाल, और सब्ज़ी... जैसा भोजन वह हर दिन करता था।)

(उसने खाना शुरू ही किया था कि उसके भीतर एक जानी-पहचानी मगर भयावह आवाज़ आई।)

मन की आवाज़ (धीमी और खुरदरी):

"तू खाना मत खा। तेरे पिताजी ने दुकान वाले को धीमा ज़हर दिया है... वो तेरे राशन में मिलाकर तुझे देता है..."

(अरुण का हाथ अचानक से रुक गया। उसके चेहरे पर भय नहीं था — सिर्फ़ एक अजीब-सी सहमति थी। जैसे उसे अहसास हो रहा हो कि ऐसा कुछ भी हो सकता है।)

(उसने थाली को धीरे से किनारे कर दिया। भूख से ज़्यादा अब उसे अपने भीतर की आवाज पर संदेह हो रहा था। लेकिन कोई उसका साथ नहीं दे रहा था जिससे वह अपने संदेह को पुष्ट कर सके इसलिए वह उन आवाजों में डूबता जा रहा था।)

अरुण (मन में):

"क्या ये मेरे मन के भीतर की आवाजें सच है? मैं इन आवाजों पर इतना विश्वास क्यों किए जा रहा हूं?

क्या... कोई मुझसे प्यार नहीं करता, क्या कोई मेरी भावनाओं को कभी नहीं समझ पाएगा?"

(अरुण बिस्तर से उठा और खिड़की की ओर चला गया। बाहर उसके कमरे के बगल में ही एक मकान का काम चल रहा था वो अपने लिए जमीन में पानी की तलाश कर के उस जगह ड्रिल से खुदाई कर रहे थे। मगर वह बाहर की किसी भी आवाज से कटा हुआ लग रहा था — जैसे उसकी चेतना का धागा अब अपने भीतर की आवाज में ही वास्तविकता देख रहा हो। यह धागा अब भीतर के आवाज के इर्द गिर्द घूमता है ऐसा लग रहा है मानो समाज से उसका संबंध टूट चुका हो।)

क्रमशः 

-शशि प्रेम

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