लघु उपन्यास "अस्तित्व की खोज" अध्याय 3

अध्याय 3 धुंध में बसी स्मृतियां 

(खिड़की के बाहर देखते हुए अरुण की आँखों में एक गहरी बेचैनी तैर रही थी। खिड़की के बाहर धुंध थी... वैसी ही धुंध, जैसी अरुण के मन में थी। आज उस धुंध ने उसे फिर अपने वर्तमान से उठाकर अतीत की यादों में ले गई।)

(फ्लैशबैक – अरुण स्कूल के दिनों में)

(अरुण को कक्षा 9 का वो साल याद आया। जब वह पहली बार अपने गांव से निकलकर कस्बे में, अपनी बुआ के घर पढ़ने गया था। नया माहौल, नए लोग, लेकिन अतीत का एक साया जो दबे पांव उसके साथ चल रहा था।)

( जब अरुण कक्षा 6 में था उसके जीवन में अजीब घटनाएं घटने लगी थीं। अरुण की मां कोमल पर उसके नाना की आत्मा आ जाती थी। वह अपना सिर हिलाते हुए कहती की नाना कुछ कहना चाहते हैं — वह अरुण के पिता चंद्रमोहन से नाराज़ हैं, क्यों कि वह शराब पी कर अरुण की मां को परेशान करता है वह आत्मा अरुण के परिवार को आशीर्वाद देना चाहती है। अरुण के लिए यह सब घटनाएं वास्तविक थी।)

( अरुण के कक्षा 7 में आते ही उसकी मां कोमल ने कहना शुरू कर दिया कि अब उन पर कृष्ण और दुर्गा मां की आत्मा भी आती है। वह भविष्यवाणियाँ करतीं, लोगों को भूत-प्रेत से बचातीं — कभी-कभी तो कहतीं कि एक नकारात्मक शक्ति का दल बादल उनके गांव की ओर बढ़ रहा है, जिसे वह अपने दैवीय शक्ति से गांव की सीमा से ही लौटा देती हैं।)

(अरुण तब बच्चा था। उसे मां की ये शक्ति ईश्वर का वरदान लगती थी।)

लेकिन...

(उसी घर में एक दूसरा चेहरा भी था — उसका पिता। शराबी, उग्र। हर रात शराब पीकर आना, फिर उसके माता-पिता के बीच लड़ाई फिर वही चीखें, वही चिल्लाहटें। गांव के लोग आते अरुण की मां पर आत्माएं आती चंद्रमोहन सबके सामने माफी मांगता और फिर से वही काम करता। कोमल फिर से चंद्रमोहन से कहती की जितना तू मुझे सता रहा है उतना ही नर्क के दूत तुझे दंड देंगे। अरुण चुपचाप बाहर बैठकर ये सब सुनता रहता। उसके भीतर एक ज्वालामुखी सा जमा होता जाता — बिना आवाज़ के।)

(कई सालों तक ये चला। मगर जब अरुण कक्षा 9 में पढ़ने के लिए कस्बे में चला गया, उसके कुछ दिनों बाद कुछ बदल गया। एक लंबे देवी देवताओं और लड़ाई के संघर्ष के बाद उसके पिता ने अचानक शराब छोड़ दी। शायद अब अरुण का पिता चंद्रमोहन भी उस लंबे संघर्ष से ऊब गए होंगे। इसमें उन तीनों आत्माओं की अहम भूमिका रही जब चंद्रमोहन शराब पीकर घर आता तो वो आत्माएं अरुण की मां कोमल की तबीयत और व्यवहार बिगाड़ देते। यह भी अरुण को समझ नहीं आया कि जब उसके पिता शराब पीकर घर आते हैं तो उसकी मां की तबीयत क्यों बिगड़ जाती है।)


(एक बार, जब अरुण छुट्टियों में घर लौटा — उसकी माँ-पिता से किसी बात पर बहस हो गई। बात इतनी बढ़ गई कि अरुण की माँ कोमल पर देवी माँ की आत्मा आ गईं। फिर... कोमल उठीं, भीतर गईं और देवताओं की छोटी कुल्हाड़ी ले आईं। वह लोहे की चमकती हुई कुल्हाड़ी जिसे अरुण हमेशा आदर से देखा करता था।)

(कोमल की आँखें लाल थीं, जैसे आज वह अपनी शक्ति से एक राक्षस का वध करना चाहती हो। चेहरा गुस्से से तप रहा था। उन्होंने कहा —)

कोमल(देवी के रूप में, गुस्से से):

"इसने देवी मां का अपमान किया है! इसे दंड मिलेगा!"

(अरुण हक्का-बक्का रह गया। एक पल के लिए वह बिना हिले कोमल के व्यवहार में आए बदलाव को देखने लगा। उसने कुछ भी नहीं किया था — सिर्फ़ अपनी बात रखी थी। फिर भी देवी मां की आत्मा उसे दंड देना चाहती थी। माँ उसके पीछे दौड़ीं, कुल्हाड़ी हवा में लहराई। अरुण डर के मारे काँप गया। वह जानता था कि माँ अब अपना आपा खो चुकी हैं — और वह देवी मां की आत्मा के वश में है।)

(डर के मारे अरुण ने अपने बचाव के लिए कुल्हाड़ी का हत्था पकड़ लिया। तभी पिता बीच में कूदे और उसे धक्का दिया।)

पिता (घबराए स्वर में):

"भाग! भाग यहां से! यहां मत रुक!"

(अरुण दौड़ पड़ा, आँखों में आंसू और दिल में घबराहट लिए। पीछे से माँ की चीख आई — उन्होंने कुल्हाड़ी से अपना ही हाथ काट लिया था।)

(अरुण दूर से सब देखता रहा। उसके मन में सब हलचल बन्द हो गई। कुछ समय तक वह चुपचाप कांपता रहा फिर उसने सोचा — क्या सच में दुर्गा मां मुझसे नाराज़ थीं? क्या मां दुर्गा मुझे बिना कारण दंड देना चाहती हैं? क्या मैंने कोई पाप किया था? क्या मेरी माँ अब मुझसे प्यार नहीं करतीं? वह मुझे मारना चाहती है?)

(आज, शहर में खिड़की के पास खड़ा अरुण वही दृश्य फिर से देख रहा था। उसकी माँ की मनोविकृति, पिता का उन्माद, और कुल्हाड़ी की धार — सब कुछ उसी तरह ताज़ा था, जैसे वो घटना आज ही हुई हो।)

अरुण (मन में, भारी स्वर में):

"मैंने कोई गलती नहीं की थी... मैंने सिर्फ़ खुद को बचाया था। लेकिन माँ... माँ ने मुझे मारने की कोशिश की?"

(उसकी आँखें भर आती हैं। वह वापस अपनी कुर्सी पर बैठता है, लेकिन मन उसी धुंध में उलझा रहता है। शायद वह जानता है — यह कहानी अभी पूरी नहीं हुई है।)

(अरुण को भूख लगने लगी। उसने उस आवाज की वजह से आज सुबह से कुछ नहीं खाया था। वह उस आवाज के विषय को भूलकर कुछ खाने की सोच ही रहा था कि उसके भीतर से फिर वही भयावह आवाज गूंज उठी—)

मन की  फिर से वही आवाज (धीमी, सख्त और दृढ़):

"तू अपने रसोई का खाना बिल्कुल मत खा। क्या तू भूल गया तेरे पिता चन्द्र मोहन ने पास के दुकान वाले को धीमा ज़हर दिया है। जिसे वो तेरे राशन में मिलाकर तुझे देता है। वह तुझे धीरे-धीरे मारना चाहता है।"

(अरुण का शरीर सिहर उठता है। अब अरुण का उस आवाज पर यकीन बढ़ता ही जा रहा था। उसे लगता है यह सच है। अरुण की आँखों में अब भूख नहीं, डर था।)

(वह वहाँ से उठकर धीरे-धीरे अपने कपड़े धोने के लिए बाल्टी की ओर बढ़ता है, लेकिन तभी वह आवाज़ फिर से आती है। अब और भी स्पष्ट, जैसे आदेश दे रही हो—)

मन की आवाज:

"अगर तुझे इस ज़हर से बचना है... अगर तुझे ज़िंदा रहना है, तो अनार का रस पीने बाज़ार जाओ। हम उसी में तुझे अमृत की एक बूंद देंगे।"

(अरुण कुछ क्षण तक ठहरता है। उसके कदम रुक जाते हैं। वह मन में सोचता है—)

अरुण (मन में):

"पर... मेरे पास पैसे नहीं हैं। जूस कैसे खरीदूंगा?"

क्रमशः 

- शशि प्रेम


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