अध्याय 4 धुंध की परतें
(सुबह के ग्यारह बजे हैं। अरुण अपने कपड़ों की बाल्टी को छोड़कर बाथरूम से बाहर निकल आया। शरीर में हल्का कंपन हो रहा है। चेहरे पर भूख और थकावट, पर उससे भी ज़्यादा एक विचित्र बेचैनी है। उसके भीतर की फुसफुसाहट भरी आवाज और भी स्पष्ट हो चुकी है। अब वह आवाज़ उसे जैसे कोई आश्वासन दे रही हो।)
मन की आवाज़ (धीरे और गंभीर):
"तुम पैसे की चिंता मत करो हम किसी को भेज देंगे। वह तुम्हारे पास आएगा... और तुम्हारा पूरा उधार चुका देगा।"
(आवाज को सुनकर अरुण थोड़ी देर स्तब्ध खड़ा रहता है। फिर उस आवाज पर बिना संदेह किए वह अपनी पुरानी नीली साइकिल पर सवार होकर बाजार की ओर जाता है। रास्ते में वह आवाज़ें फिर शुरू हो गई — वो आवाज अंदर से बोलती हैं, जैसे कोई उसके साथ लगातार संवाद कर रहा हो।)
मन की आवाज़ :
"अरुण... तू बहुत प्रसिद्ध है आज हर कोई तेरा नाम जानता है। टीवी पर तेरी खबर चल रही है।"
अरुण (मन में, उलझन से):
"मैं... प्रसिद्ध? लेकिन क्यों?"
(उसकी साइकिल की चेन चरमराती है,अरुण एक क्षण को साइकिल रोकता है। लेकिन उसके मन में अब केवल वही आवाज़ गूंज रही है। मानो उसे हर सवाल का जवाब आता हो। अरुण की धड़कनें तेज़ हो जाती हैं। वह चारों ओर देखता है। लोग अपनी ही दुनिया में व्यस्त हैं, उसे कोई नहीं देख रहा।)
मन की आवाज़ (धीरे, शांत भाव से):
"अरुण तुमने एक ऐसी चीज़ खोजी है। जिसे दुनिया ने अब तक कभी नहीं देखा था।"
अरुण (काँपते होंठों से):
"मैंने क्या खोजा...? मुझे कुछ याद नहीं आता।"
मन की आवाज़:
"याद आ जाएगा। वक्त आने दो। तुमने जो खोजा है, उसकी जानकारी अभी तुम्हारे भीतर बंद है। लेकिन आज रात... प्रधानमंत्री स्वयं तुमसे मिलने आएंगे। वो तुम्हारी खोज के लिए तुम्हें राष्ट्रीय सम्मान देने वाले हैं।"
(अरुण की सांसें तेज़ हो जाती हैं, वो अपने माथे से पसीना पोंछता है और वह साइकिल को सीधे जूस की दुकान के पास खड़ी कर देता है।)
(अरुण दुकान के अंदर दाख़िल होता है। दुकान के अंदर हल्की महक है, अनार, संतरे और कीनू की मिली-जुली खुशबू हवा में घुली हुई है। जूस की मशीन की हल्की-हल्की घरघराहट के बीच टीवी पर एक शोरगुल भरा न्यूज़ डिबेट शो चल रहा है। एंकर चिल्ला रहा है, कुछ नेता एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। अरुण ध्यान से स्क्रीन पर देखता है। वह उम्मीद करता है कि शायद वहाँ उसका नाम हो...)
(लेकिन वहाँ उसे अपना नाम नहीं मिलता। वहां पर और ही राजनीतिक मुद्दे पर चर्चा हो रही है।)
(जूस वाला, यूसुफ भाई, सिर पर सफ़ेद टोपी और चश्मा लगाए। अरुण को ध्यान से देखता है, फिर एक अजीब टिप्पणी करता है।)
जूस वाला (कुछ तीखेपन से):
"देख रहे हो तुम्हारे लोग... तुम हिंदू लोग हम से बहुत लड़ते हो। हर बात में झगड़ा।
(अरुण उस बात को अनसुना कर देता है। वह यूसुफ की उस बात पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। मगर उसके चेहरे पर हल्का-सा दुख उभर आता है। टीवी पर उसकी खबर नहीं चल रही थी, ये बात कहीं गहरे उसे चुभ गई।)
अरुण (धीमे स्वर में):
"यूसुफ भाई... उधार में एक अनार का जूस मिल जाएगा क्या?"
(यूसुफ उसे घूरता है, फिर एक लंबी सांस लेता है।)
यूसुफ (गंभीर लहजे में):
"इस बार उधार... चलो, दे देता हूँ।"
(वो मशीन में अनार के दानों को डालता है। आवाज़ होती है — कुछ पिचके हुए बीज, कुछ रस, और एक गाढ़ा लाल तरल।)
(जूस अरुण के सामने आता है। अरुण गिलास उठाता है, एक घूँट पीता है... फिर दूसरा.. और फिर पूरे जूस को पी जाता है। अरुण जूस की मिठास में कुछ खोज रहा था लेकिन उसे गिलास में एक अनार का दाना मिलता है।)
अरुण धीरे से मन में (धीरे, उत्साहित लहजे में):
"क्या ये वही है... अमृत की बूंद। ये मेरे लिए भेजा गया है... इसे खा लूं या नहीं।"
(अरुण आगे बिना सोचे बीज को निगल जाता है। एक क्षण के लिए कुछ नहीं होता... फिर उसे विश्वास हो जाता है कि वह सौ वर्ष के लिए अमर हो गया और अब उस पर जहर का असर नहीं होगा।)
क्रमशः
- शशि प्रेम
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