अध्याय 1: बिना कीमत की आवाज़
बडकोट की सुबह अक्सर कच्ची सड़क और कच्चे मकानों से लिपटी होती है लेकिन अर्जुन के लिए यह सिर्फ राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था का प्रतिबिंब नहीं था, बल्कि उसकी भीतरी विद्रोही स्पष्टता की छाया भी थी।"
अपने मिट्टी के घर में एक छोटे से कमरे में, लकड़ी की चारपाई पर बैठा अर्जुन एक टूटी-सी कलम से कॉपी में कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था। बासी भोजन की गंध, दीवार पर छाया हुआ सीलन और खिड़की से आती हुई धूप ये सब कुछ उसकी प्रेरणा के स्रोत थे, और शायद उसके लेखन की बाधाएँ भी।
"कभी-कभी सोचता हूँ," अर्जुन बुदबुदाया, "क्या इस कलम में वाकई ताकत है या सिर्फ यह लेखक का झूठा दिलासा है?"
उसका कमरा, जो किसी समय पशु को बांधने का स्थान रहा होगा अब उसकी दुनिया बन चुका है।
पड़ोस में रहने वाली बूढ़ी अम्मा ने उसे देखकर कहा, “अर्जुन बेटा, तू फिर से रात भर नहीं सोया क्या?”
वो मुस्कराया
“सोने की फुर्सत किसे है अम्मा? नींद भी तो अमीरों का शौक बन गई है।”
वह एक नया लेख लिख रहा था — "अंधविश्वास का समाज और चेतना का सौदा" जिसमें उसने शहर के बड़े सिद्धपुरुषों पर सीधा कटाक्ष किया था। उसमें एक नाम जो बार-बार आया कृपाल द्विवेदी।
कृपाल, जिसे आम लोग "बंबई का दानी पुरुष" कहते थे, अर्जुन की नजर में वह एक ऐसा शख्स था जो दान नहीं, सिर्फ अपने दान का दिखावा करता है।
“विश्वास अगर सोने में लिपटा हो, तो समाज उसे सिद्धपुरुष बना देता है।”
अर्जुन सोच ही रहा था तभी अर्जुन वर्मा के पुराने रेडियो से एक आवाज़ आई
"कृपाल द्विवेदी ने आज 50 लाख रुपये एक मानसिक चिकित्सालय को दान दिए..."
"अर्जुन ने रेडियो बंद कर दिया — जैसे किसी झूठे शोर से खुद की चेतना को बचाना चाहता हो।"
उसने अपने लेख के अंत में लिखा:
"वो कहते हैं, अंधविश्वास किसी का नहीं होता। मगर यह भी सच है कि सच्चाई का कोई खरीदार नहीं होता। मैं अंधविश्वास को बिकने नहीं दे सकता — क्योंकि मैं खुद को खोना नहीं चाहता।"
अगली सुबह जब अर्जुन ने अख़बार खोला, तो पहले पन्ने पर मोटे अक्षरों में छपी एक ख़बर ने उसकी निगाह खींची:
“बडकोट में दो दिन बाद लगेगा कृपाल द्विवेदी का दिव्य दरबार — तंत्र-मंत्र और भूत विद्या का महाप्रयोग।”
अर्जुन ने काग़ज़ मोड़ा। कुछ देर तक अपने आप से बुदबुदाते हुए कहा।
"अब आस्था भी अंधविश्वास के प्रदर्शन का केंद्र बन गई है"
दो दिन बाद, उत्सुकता या शायद क्रोध से प्रेरित होकर, वह भीड़ के साथ दरबार में पहुँचा। जगह एक खुला मैदान था, जिसके चारों ओर रंग-बिरंगे पोस्टर, फूलों की माला और ढोल-नगाड़ों का शोर था। मंच पर कृपाल द्विवेदी सफेद वस्त्रों में विराजमान था — उसके आसपास शिष्यों और मीडिया की हलचल थी।
तभी मंच पर एक व्यक्ति लाया गया — सुरेश। आँखें डरी हुईं, कपड़े अस्त-व्यस्त। उसके परिवार ने कहा: “इसमें कोई आत्मा प्रवेश कर गई है।”
कृपाल ने आँखें मूँद लीं, मंत्र बुदबुदाने लगा। अर्जुन किनारे से देख रहा था — पहले असहमति से, फिर कुछ असहज उत्सुकता से।
कृपाल की आवाज़ गूंजी:
"बता तेरा नाम क्या है?"
सुरेश की आवाज़ अचानक भारी हो गई —
"पूजा... पूजा..."
"पूजा कौन है?" कृपाल गरजा।
"क्यों इस शरीर को कष्ट दे रही है?"
सुरेश का शरीर काँपने लगा, जैसे कोई और बोल रहा हो:
"मैं इसके पड़ोसी गाँव में रहती थी मुझे शराब पीनी है... मुझे चढ़ावा चाहिए..."
कृपाल ने भभूत उड़ाई, जल छिड़का, और ज़ोर से बोला:
"ओ पूजा! इस शरीर को छोड़, तुझे कुछ नहीं मिलेगा!"
अर्जुन इस तमाशे को देखता रहा —
भीतर कुछ छलक रहा था —
क्या यह अभिनय था?
अंधविश्वास या कुछ ऐसा जिसे विज्ञान भी नहीं छू सका?
वह वापस लौटते हुए सोच रहा था:
यह अंधविश्वास ही तो है जो एक व्यक्ति के शरीर में दो चेतना का छलावा प्रदर्शित करता है और यही अंधविश्वास एक दिन इन लोगों की नैया डुबो कर रहेगा।
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