अध्याय 9: अधूरी उड़ान
(कुछ दिनों बाद अरुण और उसका पिता शहर आते हैं। )
(स्थान: शहर में अरुण का कमरा। कमरे के भीतर चंद्रमोहन चुपचाप कपड़े और किताबें बैग में रख रहे हैं। अरुण खिड़की के पास खड़ा है, और दूर आसमान को ताक रहा है।)
अरुण (धीमे स्वर में):
"पापा… मैं यहीं रहकर अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहता हूँ। डॉक्टर ने भी कहा है कि मैं धीरे-धीरे ठीक हो रहा हूँ। मुझे… मुझे एक और मौका चाहिए।"
(चंद्रमोहन बिना पलटे धीरे-धीरे कपड़े तह करते रहते हैं। उनके चेहरे पर एक अजीब सी कठोर चुप्पी है।)
चंद्रमोहन:
"मौका… किस्मत वाले लोगों को मिलता है, अरुण। तेरी तो किस्मत ही खराब है। तेरे लिए ये शहर नहीं, गांव ही ठीक है। तू अभी स्वस्थ नहीं है तुझ पर किसीने उपरी जादू कर दिया है। हम तुझे अब गाँव में स्वस्थ करेंगे।"
अरुण (रुकते हुए, आवाज़ में हलका कंपन):
"तो आप भी हार मान गए?
आप भी मानते हैं कि मुझ पर काला जादू हुआ है?"
(चंद्रमोहन पलटते हैं। पहली बार उनकी आँखों में आँसू की परछाईं दिखती है, मगर जवाब में अब चुप्पी है। चंद्रमोहन कोई जवाब नहीं देता।)
(अरुण फ्लैशबैक से वर्तमान में आ जाता है। अब वह अपने बारे में सोचता है कि वह सपने की आवाज कहाँ से आती हैं लेकिन अरुण को कभी इसका सही जवाब नहीं मिलता। वो आवाजें आज भी उसके मन में आती हैं।)
(अरुण धीरे से बाहर जाने के लिए निकलता है। वह बाजार की ओर चल देता है — सिर झुका हुआ, दिल भारी।)
(रास्ते में सोचता हुआ…)
अरुण (मन में):
"क्या मैं सच में बीमार हूँ?
या ये दुनिया मेरे भीतर की आवाज़ों को सुनने के लिए तैयार नहीं?
क्या होगा अगर मेरी नौकरी नहीं लगी?
क्या मेरा कोई भविष्य है भी?"
(तभी उसे सामने एक अजनबी व्यक्ति दिखता है — सफेद दाढ़ी, सीधी आंखें और सूती कुर्ता पहने। वह उसे ठहरकर देखता है।)
अजनबी:
"तुम अपने ही बनाए विचारों में कैद हो, अरुण।
वहाँ से निकलने का कोई रास्ता नहीं।"
(अरुण उसकी बातों पर ध्यान नहीं देता और वहां से आगे बढ़ जाता है। आज वह लौटकर घर नहीं जाता। वह अब सदा के लिए विचारों से मुक्त हो गया है। उसकी कहानी अब उन्हीं विचारों में कैद हो गई जहाँ वह खुद कैद था।)
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