अध्याय 6 शीशे में प्रधानमंत्री
(काव्या धीरे-धीरे कमरे को चारों ओर से निहारती है। उसकी नज़र अलमारी की ओर जाती है, जहाँ कबीर पंथी गुरु की एक तस्वीर लगी है। उसके पास एक छोटी सी चारनामृत की बोतल रखी हुई है। खिड़की के पास कृष्ण और राधा की एक तस्वीर भी रखी हुई है।)
काव्या (धीमे स्वर में):
"अरुण तुम इन किताबों से इतना दुखी क्यों हो? आखिर तुमने इनको कमरे में फाड़ कर क्यों रखा है?"
(अरुण एक पल के लिए खामोश रहता है, फिर उसके व्यवहार में गहरी पीड़ा झलकती है।)
अरुण (धीरे से, खुद से लड़ते हुए):
"यहाँ हर किताब के पीछे मेरी हार, मेरी उम्मीदें और टूटे हुए सपने छिपे हैं। ये किताबें मेरे अतीत की आवाज़ें हैं, जो अब मेरे मन में गूंजती हैं। उन्होंने कहा कि अब तुम्हें इन किताबों और रिजल्ट की जरूरत नहीं है। इसलिए मैंने इन्हें फाड़ दिया और अपना हाई स्कूल और इंटर कॉलेज रिजल्ट जला दिया।"
(काव्या उसका दर्द महसूस करती है, उसकी आँखों में सहानुभूति की चमक होती है।)
काव्या:
"क्या यही वजह है कि तुमने इन्हें जलाने की कोशिश की? या शायद ये आवाज़ें तुम्हें परेशान कर रही हो, तो तुमने उन्हें चुप करा दिया?"
अरुण (धीरे से):
"मुझे लगा कि अगर मैं इन्हें जला दूं, तो शायद मेरा अतीत भी जल जाएगा और वो मेरे भीतर की आवाज भी नहीं आएगी। लेकिन ये लाशें, ये बिखरी किताबें, अब भी कहीं अंदर तक मुझे अपनी ओर खींचती हैं। इसलिए मैं इन किताबों को जला नहीं पाया। काव्या… एक अदृश्य ताकत भी है… जो मुझे पिछले एक हफ्ते से सोने नहीं दे रही। मुझे अब संदेह है की वो मेरे भीतर की आवाज कहाँ से आ रही है।"
काव्या(एक गंभीर बैचेनी में):
"अरुण कैसी अदृश्य ताकत उनके बारे में थोडा बिस्तार से बताओ वो तेरे साथ क्या करते हैं।"
अरुण:
"जब भी मैं सोने की कोशिश करता हूं वो अदृश्य ताकत मुझे सपने में मारने लगती है। जिससे मेरी नींद खुल जाती है और मैं सुबह के चार बजे तक नहीं सोता हूं फिर मैं कालेज जाने की जगह दिन में अपनी नींद पूरी कर लेता हूं।"
(काव्या इस बात का कोई जवाब नहीं देती। कमरे में एक असहज खामोशी भर जाती है। काव्या अरुण की आँखों में झांकने की कोशिश करती है, लेकिन उसकी नज़र अब आत्म मुग्धता में कहीं खो चुकी है।)
अरुण (आवाज़ में रहस्य और उत्तेजना):
"आज रात... मुझसे प्रधानमंत्री मिलने आ रहे हैं।"
काव्या (चौंकते हुए, संशय से):
"क्या? प्रधानमंत्री? लेकिन क्यों? तुमने ऐसा क्या किया है, अरुण?"
अरुण (गंभीरता से, धीरे-धीरे):
"मैंने एक गुप्त खोज की है, काव्या... ऐसी खोज, जो इस देश का भविष्य बदल सकती है।"
(वो एकाएक शीशे की ओर देखता है। उसकी आँखों में चमक और बेचैनी का अजीब मेल है। अरुण शीशे की ओर देखते हुए काव्या से कहता है देखो प्रधानमंत्री की वीडियो कॉल आ रही है। अरुण अब शीशे से बात करने लग जाता है।)
अरुण (शीशे से बात करते हुए, जैसे किसी और से संवाद कर रहा हो):
"हाँ... मैं तैयार हूँ। काव्या प्रधानमंत्री जी रास्ते में हैं। वो जल्द ही कुछ घंटों में यहां पहुंचने वाले हैं।"
काव्या (नरम स्वर में):
"अरुण… ये मेरा नंबर है इसे फोन में सेव कर लो। जब प्रधानमंत्री आ जाएँ, तो मुझे कॉल ज़रूर करना। मैं भी उनसे मिलना चाहती हूँ… और तुमसे भी।"
(इतने में, दरवाज़े पर ठक-ठक होती है। दोनों चौंकते हैं। अरुण धीरे से दरवाज़ा खोलता है। सामने मकान मालकिन खड़ी हैं, हाथ में एक थाली है।)
मकान मालकिन (सीधे स्वर में):
"अरुण बेटा, तुम मांस तो नहीं खाते न?
अरुण (धीरे से सिर हिलाते हुए):
"नहीं आंटी, मैं मांस नहीं खाता।"
(अरुण दरवाज़ा बंद करता है और जैसे ही वह पलटता है, कमरे में अब काव्या नहीं है। वह इधर-उधर देखता है — चारनामृत की बोतल वहीं है, कृष्ण-राधा की तस्वीर जस की तस, लेकिन काव्या… एकदम गायब।)
अरुण (धीरे, आश्चर्य में):
"काव्या...? अभी यहीं थी... कहाँ चली गई?"
(वो दरवाज़ा खोलकर बाहर झाँकता है, लेकिन गलियारा खाली है। चारों तरफ सन्नाटा।)
( रात का समय। अब अंधेरा पूरी तरह फैल चुका है। गलियों में स्ट्रीट लाइट्स की पीली रोशनी बिखरी हुई है। हल्की हवा चल रही है, जो कभी-कभी किसी पुराने कागज को उड़ाकर ले जाती है।)
(अरुण अब अपने घर के बाहर, गेट के पास खड़ा है। उसके चेहरे पर इंतज़ार, उत्तेजना और एक अनकहा भय सब एक साथ हैं।)
अरुण (धीरे से बुदबुदाते हुए):
"बस कुछ ही पलों की बात है… प्रधानमंत्री जी आने ही वाले हैं।"
(वह बार-बार सड़क की ओर देखता है.... लेकिन उसे सड़क खाली ही नजर आती है।)
क्रमशः
- शशि प्रेम
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