लघु उपन्यास "अस्तित्व की खोज" अध्याय 5

अध्याय 5 कमरे की चुप बिखरी किताबें

 अरुण (मन में फुसफुसाते हुए):

"अब मैं अमर हूँ... अब कोई ज़हर, कोई बीमारी, कोई दुःख मुझे छू नहीं सकता।"

(उसके चेहरे पर एक शांति थी— वह शांति उसे सुकून नहीं दे रही थी, बल्कि वह शांति उसके गहरे भ्रम से उपजती है।)

भोजन की ओर यात्रा

(अनार का रस पीने के बाद अरुण को अपना शरीर हल्का और पेट अब पहले से और ज़्यादा खाली महसूस हो रहा था। उसे भूख लग रही थी। लेकिन इस भूख को अब केवल रोटी नहीं मिटा सकती थी — यह मान्यता की, सम्मान की, और उस अमरत्व के पुरस्कार की भूख थी, जो उसे अभी-अभी मिला था।)

(वह सीधे उस छोटी भोजनालय की ओर गया, जहाँ वह कभी-कभी उधार पर भोजन खा लिया करता था।)

भोजनालय में अपमान

(अरुण धीमी चाल से भोजनालय में दाखिल हुआ। वहाँ की दीवारें अब उसे छोटी लग रही थीं, जैसे वह इस जगह से कहीं बड़ा हो गया हो।)

अरुण (आवाज़ साधकर):

"भैया... शाही पनीर मिल जाएगा क्या? उधार में..."

(भोजनालय का मालिक उसे बिना देखे अंदर बैठने के लिए कहता है।)

(अरुण के भीतर वही आवाज़ फिर से उसके मन में गूंजती है — यह आवाज़ अब पहले से अधिक दृढ़ और अधिकारपूर्ण हो चुकी थी।)

मन की आवाज़:

"एक प्लेट नहीं, दो मांगो।"


अरुण (धीरे मगर आत्मविश्वास से):

"दो प्लेट शाही पनीर दे दो।"

(अब मालिक अरुण की ओर देखता है। उसकी आँखों में हल्का-सा संशय है।)

मालिक (गंभीरता से):

"तेरे जैसे लोग आते हैं, खाते हैं और फिर ग़ायब हो जाते हैं। अब निकल यहाँ से। पैसे लेकर आना तब खाना मिलेगा।"

(यह सुनकर अरुण को एक झटका लगा लेकिन भीतर की आवाज उसे अभी भी विश्वास दिलाती है कि यह भोजनालय वाला जैन है इसलिए तुम्हें भोजन नहीं दिया तुम अब इसके रेस्टोरेंट में मत जाना। लोगों की हँसी अरुण को एकदम ठोस और भारी लगने लगती है। लेकिन अब वह टूटता नहीं। वह सीधा अपने कमरे की ओर लौटता है।)

कमरे की ओर वापसी

(अपमान और भूख से थका हुआ अरुण अपने कमरे की ओर लौटा। भीतर अब भी वही आवाज़ उसे राह दिखा रही थी — शांत, लेकिन अडिग।)

अरुण (दरवाज़े पर खड़े होकर):

"आंटी... दो सौ रुपए चाहिए। बहुत ज़रूरी है। एक दो  दिन में लौटा दूँगा।"

(आंटी दरवाज़े से झाँकती हैं। कुछ देर अरुण को देखती हैं — उसकी आँखों में अजीब-सी चमक है जैसे उसे यह बात पहले से ही पता हो कि अरुण उनसे उधार मांगेगा, बिना कुछ कहे वह अंदर जाती हैं और ₹200 उसकी ओर बढ़ा देती हैं।)

भोजन और जूस

(अरुण सड़क के किनारे लगे ठेले से पूड़ी-सब्ज़ी खरीदता है। जल्दी-जल्दी खाता है — जैसे हर कौर के साथ वह अपने भीतर की किसी और भूख को शांत कर रहा हो।)

(बचे हुए पैसों से वह एक ऐलोवेरा के रस की बोतल खरीदता है। बोतल को देखते हुए उसकी आँखों में अजीब-सी चमक लौट आती है।)

अरुण (मन में फुसफुसाते हुए):

"अब मेरा जीवन व्यर्थ नहीं है... अब मैं कुछ बड़ा करने को तैयार हूँ।"

कमरे में विश्राम और बेचैनी

(अरुण कमरे में लौटकर बिस्तर पर लेट जाता है। उसके चेहरे पर संतोष का एक झूठा आवरण है, लेकिन भीतर बेचैनी है।)

(रात भर वह करवटें बदलता है — नींद जैसे उससे रूठ गई हो। सुबह की रोशनी भी उसे नहीं जगा पाती। वह दोपहर तक सोता रहता है, कॉलेज जाना भूल चुका है, या शायद अब उसे ज़रूरत ही नहीं लगती।)

शाम का आगमन

(शाम के वक़्त हलचल होती है — नीचे सड़क पर एक सफेद गाड़ी आकर रुकती है, जिस पर "आयुर्वेद चिकित्सक" लिखा होता है। लोग जुटते हैं, लेकिन अरुण खिड़की से चुपचाप देखते रहता है।)

बाहरी आहट और अजनबी आवाज़

(अचानक कोई दरवाज़ा खटखटाता है। अरुण चौंकता है। दरवाज़ा खोलता है तो बाहर एक लड़की खड़ी होती है। साधारण कपड़े, लेकिन आँखों में कुछ जानने की ललक।)

लड़की (मुस्कराते हुए):

"हाय, तुम अरुण हो न?"


अरुण (सावधानी से):

"तुम कौन?"


लड़की:

"मैं... काव्या।"


(अरुण कुछ कहता नहीं, बस उसकी ओर देखता रहता है।)

काव्या (हल्की मुस्कान के साथ):

"मैं आपके पड़ोस में ही रहती हूँ।"


अरुण (थोड़ा चौंकते हुए, संदेह में):

"पर मैंने आपको पहले कभी नहीं देखा..."


काव्या (नज़रें मिलाते हुए, धीमे से):

"शायद आपने देखा नहीं... या देखना नहीं चाहा।"

(अरुण कुछ पल के लिए चुप रहता है। वह पहली बार थोड़ा असहज महसूस करता है।)

अरुण (धीरे से):

"कुछ काम था?"


काव्या:

"नहीं... बस यूँ ही।तुम बहुत अकेले रहते हो तो लगा तुमसे बात करनी चाहिए।"

(उसकी आवाज़ में ना सहानुभूति, ना दया थी .. बस एक सीधी, सच्ची उपस्थिति। अरुण को लगता है जैसे उसके भीतर का ज्वालामुखी हिलने लगा हो। उसे कोई दोस्त मिल गया जिससे वह अपने दुखों को बांट सके।) 

काव्या (थोड़ा संकोच के साथ):

"अगर बुरा न मानो तो... अंदर आ जाऊँ?"

(अरुण थोड़ी देर चुप रहा। उसे आदत नहीं थी कि कोई उसके कमरे में आए। लेकिन उसके सिर ने खुद-ब-खुद 'हाँ' में हल्की-सी झलक दी।)

(काव्या अंदर आई। कमरे की हवा कुछ पल के लिए जैसे ठहर गई। किताबें फटकर बिखरी थीं, अरुण के हाई स्कूल और कॉलेज के रिजल्ट का कोना जला हुआ था, मेज़ पर अधखाली ऐलोवेरा की बोतल रखी थी। कमरे में अकेलेपन की अजीब-सी गंध थी।

काव्या (धीरे से, चारों ओर देखते हुए):

"तुम्हारा कमरा... बहुत कुछ कहता है।"


अरुण (थोड़ा हँसने की कोशिश करते हुए):

"अक्सर किताबें बोलती हैं, पर अब ये सब चुप हैं, ये बहुत शोर कर रहे थे मैंने इन्हें चुप करा दिया।"

(काव्या चुपचाप एक कुर्सी पर बैठ जाती है, जो शायद पिछले कुछ दिनों से इस्तेमाल में नहीं आई थी। धूल हल्की उड़ती है। लेकिन अरुण के भीतर न कोई घबराहट थी, न शिकायत।)

काव्या:

"तुम्हें जानकर अजीब लगेगा, लेकिन मैं अक्सर सोचती थी... इस कमरे में क्या चलता होगा। आज समझ में आ रहा है — यहाँ बहुत कुछ ठहरा हुआ है।"

(अरुण उसे देखता है। पहली बार किसी ने उसके कमरे को, उसके अस्तित्व को बिना मूल्यांकन के स्वीकार किया है।)

(भीतर की आवाज़, जो हमेशा आदेश देती थी, आज चुप थी। शायद वह भी सुन रही थी।)

अरुण (धीरे से, जैसे खुद से कह रहा हो पर काव्या को सुनाना भी चाहता हो):

"यहां किताबों की लाशें बिखरी हुई हैं जिन्हें मैं शायद जला नहीं पाया। किसी ना किसी को तो इन किताबों के लाशों के ऊपर से गुजरना होगा।

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