लघु उपन्यास "अस्तित्व की खोज" अध्याय 7

 अध्याय 7 कोई आ रहा है...

(अरुण गेट पर खड़ा है। चारों ओर अजीब सी नीरवता है। दूर कहीं कुत्ते भौंकते हैं, पर कोई आता नहीं।)

अरुण (धीरे से, खुद से):
"कहीं प्रधानमंत्री आने का वक़्त तो नहीं बदल गया?"

(वो जेब से मोबाइल निकालता है और स्क्रीन पर एक नाम टाइप करता है — काव्या। लेकिन स्क्रीन पर लिखा आता है: "No Contact Found.")

अरुण (घबरा कर):
"मैंने तो सेव किया था... कहाँ गई?"

(वो वापस कमरे में आता है। शीशे के पास खड़ा होता है। उसकी आँखें लाल हैं, नींद और उलझन के बीच डोलती हुईं। वह शीशे में देखता है तो इस बार उसे अपना ही चेहरा दिखाई देता है।)

अरुण (धीरे से, खुद से):
"प्रधानमंत्री जी अब वीडियो कॉल क्यों नहीं कर रहे? अभी कुछ समय पहले तो मेरी बात हुई…"

(तभी उसके मन में धीमी, फुसफुसाती हुई आवाज़ आती है —)

रहस्यमय मन की आवाज़:
"कोहरे की वजह से प्रधानमंत्री लेट हो गए हैं... वो आ रहे हैं... थोड़ा और इंतज़ार..."

(अरुण की आँखें चमकती हैं, लेकिन थकावट और नींद ने उसे खोखला कर दिया है। वह रातभर गेट के पास खड़ा रहता है — ऊंघते हुए, सड़क को ताकते हुए। धीरे-धीरे, रात बीत जाती है। मकान मालिक के कमरे में हलचल शुरू हो जाती है। अरुण अपने कमरे में लौट जाता है सुबह की हल्की नीली रोशनी कमरे में फैलती है।)

(अब मौसम साफ है। कोहरा हट चुका है। गली में शोरगुल हो रहा है, दूध वाला साइकल से जा रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री नहीं आए। अब एक क्षण के लिए अरुण को उन आवाज और अपने व्यवहार पर संदेह बढ़ने लगता है फिर भी मानसिक बीमारी के प्रति जागरूकता ना होने के कारण उसे लगता है कि कोई शैतान ये सब मेरे साथ कर रहा है। लेकिन फिर भी जब वो आवाज आती तो अरुण उसे फिर से उसके अनुसार चलने लगता।)

अरुण (खुद से, फुसफुसाते हुए):
"ये सब क्या था? क्या कोई शैतान मेरे साथ खेल रहा है?"

(वो ठिठक जाता है। कुछ याद करता है।)

अरुण (घबरा कर):
"दो दिन पहले... मैंने वो गेम खेला था... Quiza Board... क्या उसी से ये सब शुरू हुआ?"



(वह फौरन अलमारी की ओर बढ़ता है। नीचे फेंकी हुई चीजों में अपनी माला ढूंढता है — धूल में लिपटी, लेकिन अब भी चमकती हुई।)

(वह माला उठाकर माथे से लगाता है, और शैतान से बचने  के लिए बड़बड़ाता है)

अरुण (तेज़ स्वर में):
"ॐ तत् सत् सतनाम... कबीर साहिब..."

(कुछ देर जाप करने के बाद वह बाथरूम की ओर बढ़ता है। खुद को शुद्ध करने के लिए नहाने चला जाता है। बाहर आकर खुद को एक मोटी, पुरानी कंबल में लपेट लेता है — ठंड अब शरीर में नहीं, चेतना के तल में है।)

(कमरे के कोने में रखी गुरु की तस्वीर के सामने घी का दिया जलाता है। धूप जलाकर, धीमी आवाज़ में आरती गाने लगता है।)

अरुण (आँखें मूंदे, गाते हुए):
"पहली आरती हरि दरबारे, तेजपुंज जहां प्राण उधारे।
पाती पंच पौहप कर पूजा, देव निरंजन और न दूजा।...."

आरती के दौरान उसकी आवाज़ कई बार काँपती है — कहीं डर है, कहीं प्रार्थना, और कहीं आत्मसमर्पण।)

(लेकिन जैसे ही वह आँखें खोलता है, कमरे के बाहर खिड़की के पास हल्की सी परछाई डोलती है — मकान मालकिन चंद्रप्रभा आती है और अरुण से कहती है तेरे पिताजी तुझ से बात करना चाहते हैं। तेरे फोन में नेटवर्क नहीं आ रहा होगा।)

चंद्रप्रभा (धीमे और गंभीर स्वर में):

"अरुण बेटा, तुम्हारे पिताजी ने फोन किया था। तुम्हारा फोन बंद आ रहा था। वो तुम से कुछ ज़रूरी बातें करना चाहते हैं।"

(अरुण अपने बैग से मोबाइल निकालता है, लेकिन नेटवर्क अभी भी नहीं आ रहा।)

(अरुण कंबल में लिपटा बैठा है। उसकी साँसें धीरे-धीरे चल रही हैं। कमरे में धूप और दीए की लौ से हल्की गर्माहट फैली है। वह चुपचाप चंद्रप्रभा की ओर देखता है — और तभी...)

उसके भीतर एक धीमी, मगर साफ़ आवाज़ गूंजती है — मन की आवाज़:
"पिताजी मतलब गुरुदेव... वही जिनके हाथों में सबकी डोर है... वही जो भीतर के सत्य को जानते हैं..."

(अरुण की आँखों में चमक आ जाती है। वह काँपते हाथों से मोबाइल लेता है, जैसे कोई ईश्वरीय संदेश पकड़ रहा हो।)

अरुण(धीमे स्वर में):
हैलो।

(दूसरी तरफ से अपने पिताजी चंद्रमोहन कि आवाज सुन कर उसे बहुत गुस्सा आता है। अरुण सिहर उठता है, जैसे किसी ने उसके भीतर की पवित्रता पर दस्तक दे दी हो।)

अरुण (धीरे से, खुद से बुदबुदाते हुए):
"ये... नहीं... ये तो चंद्रमोहन हैं... सांसारिक पिता... पर मेरे असली पिता तो सत्पुरुष हैं...जो कि अब मेरे गुरुदेव के रूप में आए हैं"

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