अध्याय 8: नरक के दूत
(अरुण का कमरा अब पूरी तरह बदल चुका है। धूप, अगरबत्ती, गुरु की तस्वीर, और दीया लगातार जल रहा है। कमरे में शांति है — पर वो शांति अब एक अंतर्मन की उथल-पुथल से भारी लग रही है। अरुण दिनभर ध्यान और नामजप में लीन है।)
अरुण (मन में):
"ॐ तत् सत् सतनाम... हर श्वास के साथ गुरु मेरे भीतर हैं... मैं इस सत्य का...रक्षक हूँ"
(तभी उसे फिर वही फुसफुसाहट सुनाई देती है — आवाज़ अब साफ़ है, जैसे कोई उसके भीतर बोल रहा हो।)
अवाज़:
"अरुण, सावधान! तुझे सबक सिखाने के लिए तेरा पिता बाउंसरों के साथ आ रहा है..."
(अरुण की आँखें चौंक जाती हैं। वह सतर्क हो जाता है। अचानक उसे हर चीज़ पर शक होने लगता है।)
शाम 7 बजे...
(दरवाज़े पर दस्तक होती है। बाहर से आवाज़ आती है)
चंद्रमोहन (बाहर से):
"अरुण, बेटा... दरवाज़ा खोलो।"
अरुण (मन में, खुद से):
"पिताजी नहीं... मैं अभी रात के समय किसी से मिलना नहीं चाहता। आपके साथ और कौन है बाहर?"
चंद्रमोहन:
कोई नहीं है बेटा मैं अकेले आया हूं देखो मैं इतनी रात को अकेले कहां जाऊँगा।
(अरुण दरवाज़ा नहीं खोलता। चंद्रमोहन कई बार आवाज़ देते हैं। फिर दरवाज़ा जोर-जोर से पीटा जाता है। अरुण थोड़ी देर के लिए अंदर से दरवाजे का लॉक खोल देता है। अरुण का पिता बाहर से दरवाजे को जबरदस्ती खोल कर अंदर चले जाता है।)
(चंद्रमोहन कमरे में आते ही रसोई की ओर बढ़ते हैं। गैस जलती है, बर्तन खड़कते हैं। खिचड़ी बननी शुरू हो गई है।)
(अरुण, जो अब तक दरवाजे की ओर पीठ किए खड़ा था, अचानक ठिठक जाता है। उसकी आँखों में एक पात्र नरक के दूत की झलक आ जाती हैं — और मन में वही जानी-पहचानी रहस्यमय आवाज़ फिर से गूंजती है।)
आवाज़ (कांपती फुसफुसाहट में):
"अब वक्त है… तुझे नरक के दूत का अभिनय करना है…और अपने पिताजी को सजा देना है कैमरे चालू हैं… ये तेरा सबसे बड़ा इम्तिहान है…"
(अरुण के चेहरे पर भाव तेजी से बदलते हैं — श्रद्धा, भय, क्रोध और भ्रम की एक विस्फोटक लहर। वह धीमे-धीमे मुस्कुराता है, जैसे किसी अंत:शक्ति से आदेश मिल रहा हो।)
अरुण (धीमे स्वर में, पिता की ओर बिना देखे):
"पिताजी… आप खाना बनाना बंद करें और पहले गुरुजी के आगे दण्डवत करें।"
चंद्रमोहन (पलटते हुए):
"बेटा… पहले कुछ खा लो… फिर बात करते हैं।"
अरुण (अब ऊँचे स्वर में):
"नहीं! पहले दण्डवत! ये आज्ञा है… गुरुदेव की। नहीं किया तो… सब कुछ बदल जाएगा… पूरा संसार।"
(चंद्रमोहन गहरी साँस लेते हैं। बेटे की बिगड़ती हालत देखकर, वे चुपचाप झुकते हैं और गुरु की तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर दण्डवत करते हैं।)
अरुण (मन में आवाज़ सुनता है):
"देखा! ये लोग पहले गुरुजी का विरोध करते थे... अब तुम्हारे सामने नाटक कर रहे हैं..."
अरुण (कठोर स्वर में):
"सिर्फ एक बार नहीं... हजार बार! एक हज़ार दण्डवत करो!"
(चंद्रमोहन चुपचाप दण्डवत करते हैं — एक... दो... तीन... तीस तक आते-आते उनकी साँस फूल जाती है, माथे से पसीना टपकने लगता है। वे ज़मीन पर बैठ जाते हैं, थके हुए, आँखें नम।)
चंद्रमोहन (थके स्वर में):
"बेटा, अब नहीं हो रहा मुझसे… मैं बूढ़ा हो गया हूँ…"
(अरुण की आँखों में आग है। वह अचानक एक पुरानी बेल्ट उठाता है और कमरे में चक्कर काटने लगता है — जैसे मंच पर कोई नरक का दूत हो।)
(वह बेल्ट से पिताजी को एक झटका देने का अभिनय करता है — हवा में बेल्ट घूमती है, लेकिन चंद्रमोहन कुछ नहीं कहते। वे चुपचाप ज़मीन पर बैठे हैं, थककर, बेटे की हालत देख कर आत्मसमर्पण की स्थिति में। अरुण चिल्लाकर कहता है आज मैं इस पापी आत्मा को सजा दूँगा।)
(तभी दरवाज़े पर तेज़ खटखटाहट होती है।)
मकान मालकिन चंद्रप्रभा(बाहर से):
"अरुण! क्या हो रहा है? लोग कह रहे हैं तुम चिल्ला रहे हो… सब ठीक तो है?"
(अरुण दरवाज़ा नहीं खोलता। तभी पड़ोसी भी आ जाते हैं। कोई कहता है —)
पड़ोसी रेखा:
"भूत चढ़ा है इस लड़के पर। किसी ओझा को बुलाओ!"
पड़ोसी मयंक:
"पागल हो गया है…मैं अभी पुलिस को बुलाता हूं"
अरुण (चिल्लाकर):
बुलाओ पुलिस को मैं भी यही चाहता हूं कि पुलिस आए और मुझे सच्चाई बताए कि मेरे साथ क्या हो रहा है।
(भीड़ इकट्ठा हो चुकी है। तभी दरवाज़े से एक जानी-पहचानी आवाज़ आती है —)
अतुल (अरुण का ग्रामवासी, शहर में कार्यरत):
"अरुण! दरवाज़ा खोल… मैं हूँ अतुल। मैं तुझे लेने आया हूँ…"
(अरुण दरवाज़ा खोलता है, सिर्फ अतुल के लिए। उसे देख, उसकी आँखों में थोड़ी नरमी आती है।)
अतुल (धीरे से):
"भाई… तू ठीक नहीं है। तुझे किसी मनोचिकित्सक से मिलना चाहिए। देख, यह बीमारी है… कोई दैवी शक्ति नहीं।"
अरुण (फुसफुसा कर):
"रात को नहीं… कोई मुजे बाहर ले जाए तो जान जा सकती है। दुश्मन देश के कमांडो बाहर मेरा इंतजार कर रहे हैं। रात को वो मुझ पर हमला कर सकते हैं।"
(अतुल कुछ नहीं कहता। वो उसे आश्वस्त करता है की वह पूरी तरह सुरक्षित है। अरुण रात को अपने ही कमरे में सोता है।)
अगली सुबह — मनोचिकित्सक विनीत कुमार का क्लिनिक
(अरुण चुप है। दीवार की ओर देखता रहता है और चिल्लाकर कहता है की यहाँ पर परमाणु बम गिरेगा विनीत कुमार शांत स्वर में उससे सवाल करते हैं।)
डॉ. विनीत कुमार:
"अरुण, क्या तुम मुझसे बताओगे कि क्या हो रहा है तुम्हारे साथ?"
(अरुण कोई जवाब नहीं देता।)
डॉक्टर:
"क्या तुमने कोई नशा किया है?"
(अरुण अचानक चिल्लाता है।)
अरुण:
"नशा तुमने किया है! मैंने नहीं!"
(डॉक्टर थोड़ी देर चुप रहते हैं, फिर धीरे से डायरी में कुछ लिखते हैं।)
डॉ. विनीत:
"तुम्हें बायपोलर डिसऑर्डर है, अरुण। हम इलाज शुरू करेंगे — ECT, मूड स्टैबिलाइज़र्स… आज तुम्हें यहीं रुकना होगा कल से तुम्हारा इलाज शुरू होगा।"
(अरुण का पिता और अन्य लोग रुकने से मना कर देते हैं और डॉ से दवा लिखवा कर गाँव चले जाते हैं। गाँव आने पर अरुण अपने आप को एक कमरे में बंद कर देता है और दवा खाने से मना कर देता है। अगली सुबह उसके घर वाले दरवाजे का लॉक थोड़ कर अरुण को मनोचिकित्सक के पास ले जाते हैं।)
(इलाज शुरू होता है। धीरे-धीरे अरुण शांत होने लगता है — लेकिन फिर भी वो डॉक्टर से नहीं कहता कि अब भी उसे आवाज़ें सुनाई देती हैं।)
(डॉक्टर उसे दवाइयाँ देते रहते हैं… लेकिन उसकी आँखों में रहस्य की परछाई वैसी की वैसी रहती है।)
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